अध्याय 1 का श्लोक 41
अधर्माभिभवात्, कृष्ण,
प्रदुष्यन्ति, कुलस्त्रिायः,
स्त्राीषु, दुष्टासु, वाष्र्णेय,
जायते, वर्णसंकरः।।41।।
अनुवाद: हे कृष्ण! पाप के अधिक बढ़ जाने से कुल की स्त्रिायाँ अत्यन्त दूषित हो
जाती हैं और हे वाष्र्णेंय! स्त्रिायों के दूषित चरित्र वाली हो जाने पर वर्णसंकर
संतान उत्पन्न होती है। (41)
अध्याय 1का श्लोक 42
संकरः, नरकाय,
एव, कुलघ्नानाम्, कुलस्य,
च,
पतन्ति, पितरः, हि,
एषाम्, लुप्तपिण्डोदकक्रियाः।।42।।
अनुवाद: वर्णसंकर कुल घातियों को और कुल को नरक में ले जाने के लिये ही होता
है गुप्त शारीरिक विलास जो नर-मादा के बीज और रज रूप जल की क्रिया से इनके वंश भी
अधोगति को प्राप्त होते हैं। (42)
अध्याय 1 का श्लोक 43
दोषैः, एतैः, कुलघ्नानाम्, वर्णसंकरकारकैः,
उत्साद्यन्ते, जातिधर्माः, कुलधर्माः, च, शाश्वताः।।43।।
अनुवाद: इन वर्ण संकरकारक दोषों से कुलघातियों के सनातन कुल-धर्म और जाति-
धर्म नष्ट हो जाते हैं। (43)
अध्याय 1 का श्लोक 44
उत्सन्नकुलधर्माणाम्, मनुष्याणाम्,
जनार्दन,
नरके, अनियतम्, वासः,
भवति, इति, अनुशुश्रुम।।44।।
अनुवाद: हे जनार्दन! जिनका कुल-धर्म नष्ट हो गया है ऐसे मनुष्यों का अनिश्चित
काल तक नरक में वास होता है ऐसा हम (अनुशुश्रुम) सुनते आये हैं। (44)
अध्याय 1 का श्लोक 45
अहो, बत, महत्, पापम्, कर्तुम्, व्यवसिताः, वयम्,
यत्, राज्यसुखलोभेन, हन्तुम्,
स्वजनम्, उद्यताः।।45।।
अनुवाद: हा! शोक! हम लोग बुद्धिमान् होकर भी महान् पाप करने को तैयार हो गये
हैं जो राज्य और सुख के लोभ से स्वजनों को मारने के लिये उद्यत हो गये हैं। (45)
अध्याय 1 का श्लोक 46
यदि, माम्, अप्रतीकारम्, अशस्त्राम्, शस्त्रापाणयः,
धार्तराष्ट्राः, रणे, हन्युः,
तत्, मे, क्षेमतरम्,
भवेत्।।46।।
अनुवाद: यदि मुझ शस्त्र रहित एवं सामना न करने वाले को शस्त्र हाथ में लिये
हुए धृतराष्ट्र के पुत्र रण में मार डालें तो वह मरना भी मेरे लिये अधिक
कल्याण-कारक होगा। (46)
अध्याय 1का श्लोक 47
एवम्, उक्त्वा,
अर्जुनः, सङ्ख्ये, रथोपस्थे,
उपाविशत्,
विसृज्य, सशरम्, चापम्,
शोकसंविग्नमानसः।।47।।
अनुवाद: रणभूमि में शोक से उद्विग्न मनवाला अर्जुन इस प्रकार कहकर बाणसहित
धनुष को त्यागकर रथ के पिछले भाग में बैठ गया। (47)
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